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हिमाचल डायरी : दो पल के जीवन से… (Sirmour सिरमौर –भाग 2)

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शाम के छह साढ़े छह बजे का समय चाय का नियत है, कुछ मेहमानों के पास अपनी निजी, और कुछ कैम्प वालों के पास, कुल मिलकर इतनी छतरियां है कि सभी एक एक करके हाल में पहुँचते है | इस तरह के आयोजन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि आप केवल अपने खोल में ही सिमटे नही रहते बल्कि अजनबी लोगो से मुलाकात होती है, कुछ नए दोस्त बनते है मोबाइल नम्बर भी लिए दिए जाते है और फिर एक दुसरे के सम्पर्क में रहने के वादे इरादे भी! यूँ तो ज्यादातर लोग गुडगाँव और दिल्ली के ही है, शायद इन्ही जगहों पर सबसे अधिक रोजगार के साधनों का सृजन भी हुआ है जिसकी वजह से देश विदेश से हजारो लोग अपने परिवेश को छोड़ कर इन शहरों में आये है, जिसकी वजह से एक नवधनाढ्य मध्यम वर्ग का उदय हुआ है, जो 1990 से पहले की भारतीय अर्थव्यवस्था में अनुपस्थित था | और, फिर ऐसे छुट्टी के अवसर पर दो चार दिन अपने PG में पड़े रहने से, या माल में घूमने से बेहतर है कि इस तरह का पर्यटन ही कर लिया जाये | एक बड़ा सा ग्रुप ऐसे ही लडके लडकियों का है, मगर वो अपनी ही दुनया में मगन है, उन सब की काटेज आस पास ही है, सो उनका अड्डा वहीं जमा रहता है | अपने ही म्यूजिक सिस्टम पर वो गाने लगा लेते है और नाचते रहते है | अपनी गिटार भी है, कभी कभी उस पर भी खुद ही गुनगुनाते रहते हैं, लडके हों या लडकियाँ, सिगरेट और शराब के शौक़ीन है और कैम्प के सहयोग से उनकी अनवरत सप्लाई उनके लिए चालू है | एक दूसरा ग्रुप दस लोगों का, दिल्ली से है, जो एक ही स्कूल से सन नब्बे के पास आउट है, और अब सभी अलग अलग कार्य क्षेत्रों में सलिंप्त है | मगर उल्लेखनीय बात है कि वो आज भी एक दूसरे के सम्पर्क में है | और, कभी कभी उन साथ बिताये गये अपने उन गुजरे लम्हों को याद करने के लिए, अपने परिवारों से अलग ऐसे प्रोग्राम बनाते रहते है | दिल्ली से हैं, और अधिकतर पंजाबी हैं, सो शुरूआती संकोच के बाद जब खुलते हैं तो फिर इतना खुल जाते हैं कि आप उनकी शाम की महफ़िल में ही अपने आप को जाम उठाये पाते है |

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